भाद्रपद शुक्ल की चतुर्थी को सिद्धि विनायक भगवान गणेश का जन्म हुआ। गणेश के रूप में विष्णु शिव-पार्वती के पुत्र के रूप में जन्मे थे। उनके जन्म पर सभी देव उन्हें आशीर्वाद देने आए थे। विष्णु ने उन्हें ज्ञान का, ब्रह्मा ने यश और पूजन का, धर्मदेव पे धर्म तथा दया का आशीर्वाद दिया। शिव ने उदारता, बुद्धि, शक्ति एवं आत्म संयम का आशीर्वाद दिया। लक्ष्मी ने कहा कि जहां गणेश रहेंगे, वहां मैं रहूंगी।’
सरस्वती ने वाणी, स्मृति एवं वक्तृत्व-शक्ति प्रदान की। सावित्री ने बुद्धि दी। त्रिदेवों ने गणेश को अग्रपूज्य, प्रथम देव एवं रिद्धि-सिद्धि प्रदाता का वर प्रदान किया। इसलिये वे सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सार्वदैशिक लोकप्रियता वाले देव हैं। वे भारत सहित सिंध और तिब्बत से लेकर जापान और श्रीलंका तक की संस्कृति में समाये हैं। वे जैन सम्प्रदाय में ज्ञान का संकलन करने वाले गणाध्यक्ष के रूप में मौजूद रहते हैं तो बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा का विश्वास है कि गणेश की स्तुति के बिना मंत्र सिद्धि नहीं हो सकती। नेपाली एवं तिब्बती वज्रयानी बौद्ध अपने आराध्य तथागत की मूर्ति के बगल में गणेश को स्थापित करते हैं।
दरअसल गणेश सुख-समृद्धि, रिद्धि-सिद्धि, वैभव, आनन्द, ज्ञान एवं शुभता के अधिष्ठाता देव हैं। संसार में अनुकूल के साथ प्रतिकूल, शुभ के साथ अशुभ, ज्ञान के साथ अज्ञान, सुख के साथ दुःख घटित होता ही है। प्रतिकूल, अशुभ, अज्ञान एवं दुःख से परेशान मनुष्य के लिये गणेश ही तारणहार हैं। वे सात्विक देवता हैं और विघ्नहर्ता हैं। वे न केवल भारतीय संस्कृति एवं जीवनशैली के कण-कण में व्याप्त हैं बल्कि विदेशों में भी घर-कारों-कार्यालयों एवं उत्पाद केन्द्रों में विद्यमान हैं। हर तरफ गणेश ही गणेश छाए हुए हैं। मनुष्य के दैनिक कार्यों में सफलता, सुख-समृद्धि की कामना, बुद्धि एवं ज्ञान के विकास एवं किसी भी मंगल कार्य को निर्विघ्न सम्पन्न करने हेतु गणेशजी को ही सर्वप्रथम पूजा जाता है, याद किया जाता है। प्रथम देव होने के साथ-साथ उनका व्यक्तित्व बहुआयामी है, लोकनायक का चरित्र है।
गणेश का व्यक्तित्व एवं कृतित्व बहुआयामी एवं बहुरंगी है, यानी बुद्धिमत्ता, चातुर्य, युद्धनीति, आकर्षण, प्रेमभाव, गुरुत्व, सुख, दुख और न जाने और क्या? एक भक्त के लिए गणेश भगवान तो हैं ही, साथ में वे जीवन जीने की कला भी सिखाते हैं। उन्होंने अपने व्यक्तित्व की विविध विशेषताओं से भारतीय-संस्कृति में लोकनायक का पद प्राप्त किया। एक ओर वे राजनीति के ज्ञाता, तो दूसरी ओर दर्शन के प्रकांड पंडित थे। धार्मिक जगत् में भी नेतृत्व करते हुए ज्ञान-कर्म-भक्ति का समन्वयवादी धर्म उन्होंने प्रवर्तित किया।
गणेश भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। प्राचीन काल से हिन्दू समाज कोई भी कार्य निर्विघ्न सम्पन्न करने के लिए उसका प्रारम्भ गणपति की पूजा से ही करता आ रहा है। भारतीय संस्कृति एक ईश्वर की विशाल कल्पना के साथ अनेकानेक देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना से फलती-फूलती रही है। सब देवताओं की पूजा से प्रथम गणपति की पूजा का विधान है। दरअसल गणेश सुख-समृद्धि, वैभव एवं आनंद के अधिष्ठाता हैं। बड़े एवं साधारण सभी प्रकार के लौकिक कार्यों का आरंभ उनके दिव्य स्वरूप का स्मरण करके किया जाता है। व्यापारी अपने बही-खातों पर ‘श्री गणेशाय नमः’ लिख कर नये वर्ष का आरंभ करते हैं। प्रत्येक कार्य का शुभारंभ गणपति पूजन एवं गणेश वंदना से किया जाता है। विवाह का मांगलिक अवसर हो या नए घर का शिलान्यास, मंदिर में मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा का उत्सव हो या जीवन में षोड्स संस्कार का प्रसंग, गणपति का स्मरण सर्वप्रथम किया जाता है। स्कंद पुराण के अनुसार जो भक्ति-पूर्वक गणेश की पूजा-अर्चना करता है, उसके सम्मुख विघ्न कभी नहीं आते। गणपति गणेश अथवा विनायक सभी शब्दों का अर्थ है देवताओं का स्वामी अथवा अग्रणी। भिन्न-भिन्न स्थानों पर गणेशजी के अलग-अलग रूपों का वर्णन है परन्तु सब जगह एक मत से गणेशजी की विघ्नहर्ता शक्ति को स्वीकार किया गया है।
गणेशजी की आकृति विचित्र है, किन्तु इस आकृति के आध्यात्मिक संकेतों के रहस्य को यदि समझने का प्रयास किया जाये तो सनातन लाभ प्राप्त हो सकता है। क्योंकि गणेश अर्थात् शिव पुत्र अर्थात शिवत्व प्राप्त करना होगा अन्यथा क्षेम एवं लाभ की कामना सफल नहीं होगी। गजानन गणेश की व्याख्या करें तो ज्ञात होगा कि ‘गज’ दो व्यंजनों से बना है। ‘ज’ जन्म अथवा उद्गम का प्रतीक है तो ‘ग’ प्रतीक है गति और गंतव्य का। अर्थात् गज शब्द उत्पत्ति और अंत का संकेत देता है-जहाँ से आये हो वहीं जाओगे। जो जन्म है वही मृत्यु भी है। ब्रह्म और जगत के यथार्थ को बनाने वाला ही गजानन गणेश है।
गणेशजी की सम्पूर्ण शारीरिक रचना के पीछे भगवान शिव की व्यापक सोच रही है। एक कुशल, न्यायप्रिय एवं सशक्त शासक एवं देव के समस्त गुण उनमें समाहित किये गये हैं। गणेशजी का गज मस्तक है अर्थात वह बुद्धि के देवता हैं। वे विवेकशील हैं। उनकी स्मरण शक्ति अत्यन्त कुशाग्र है। हाथी की भ्रांति उनकी प्रवृत्ति प्रेरणा का उद्गम स्थान धीर, गंभीर, शांत और स्थिर चेतना में है। हाथी की आंखें अपेक्षाकृत बहुत छोटी होती हैं और उन आँखों के भावों को समझ पाना बहुत कठिन होता है। दरअसल गणेश तत्ववेत्ता के आदर्श रूप हैं। गण के नेता में गुरुता और गंभीरता होनी चाहिए। उनके स्थूल शरीर में वह गुरुता निहित है। उनका विशाल शरीर सदैव सतर्क रहने तथा सभी परिस्थितियों एवं कठिनाइयों का सामना करने के लिए तत्पर रहने की भी प्रेरणा देता है। उनका लंबोदर दूसरों की बातों की गोपनीयता, बुराइयों, कमजोरियों को स्वयं में समाविष्ट कर लेने की शिक्षा देता है तथा सभी प्रकार की निंदा, आलोचना को अपने उदर में रख कर अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहने की प्रेरणा देता है। छोटा मुख कम, तर्कपूर्ण तथा मृदुभाषी होने का द्योतक है।
गणेश का व्यक्तित्व रहस्यमय है, जिसे पढ़ पाना एवं समझ पाना हर किसी के लिये संभव नहीं है। शासक भी वही सफल होता है जिसके मनोभावों को पढ़ा और समझा न जा सके। इस प्रकार अच्छा शासक वही होता है जो दूसरों के मन को तो अच्छी तरह से पढ़ ले परन्तु उसके मन को कोई न समझ सके। दरअसल वे शौर्य, साहस तथा नेतृत्व के भी प्रतीक हैं। उनके हेरांब रूप में युद्धप्रियता का, विनायक रूप में यक्षों जैसी विकरालता का और विघ्नेश्वर रूप में लोकरंजक एवं परोपकारी स्वरूप का दर्शन होता है। गण का अर्थ है समूह। गणेश समूह के स्वामी हैं इसीलिए उन्हें गणाध्यक्ष, लोकनायक, गणपति आदि नामों से पुकारा जाता है।
गज मुख पर कान भी इस बात के प्रतीक हैं कि शासक जनता की बात को सुनने के लिए कान सदैव खुले रखें। यदि शासक जनता की ओर से अपने कान बंद कर लेगा तो वह कभी सफल नहीं हो सकेगा। शासक को हाथी की ही भांति शक्तिशाली एवं स्वाभिमानी होना चाहिए। अपने एवं परिवार के पोषण के लिए शासक को न तो किसी पर निर्भर रहना चाहिए और न ही उसकी आय के स्रोत ज्ञात होने चाहिए। हाथी बिना झुके ही अपनी सूँड की सहायता से सब कुछ उठा कर अपना पोषण कर सकता है। शासक को किसी भी परिस्थिति में दूसरों के सामने झुकना नहीं चाहिए।
गणेशजी सात्विक देवता हैं, उनके पैर छोटे हैं जो कर्मेन्द्रिय के सूचक और सत्व गुणों के प्रतीक हैं। मूषक गणपति का वाहन है जो चंचलता एवं दूसरों की छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति को नियंत्रित करने का प्रेरक है। दरअसल मूषक अत्यंत छोटा एवं क्षुद्र प्राणी है। इसे अपना वाहन बना कर गणपति ने उसकी गरिमा को बढ़ाया है और यह संदेश दिया है कि गणनायक को तुच्छ से तुच्छ व्यक्ति के प्रति भी स्नेहभाव रखना चाहिए। गणेशजी की चार भुजाएँ चार प्रकार के भक्तों, चार प्रकार की सृष्टि और चार पुरुषार्थों का ज्ञान कराती हैं।
गणेशजी को प्रथम लिपिकार माना जाता है। उन्होंने ही देवताओं की प्रार्थना पर वेद व्यासजी द्वारा रचित महाभारत को लिपिबद्ध किया था। जैन एवं बौद्ध धर्मों में भी गणेश पूजा का विधान है। गणेश को हिन्दू संस्कृति में आदिदेव भी माना गया है। अनंतकाल से अनेक नामों से गणेश दुख, भय, चिन्ता इत्यादि विघ्न के हरणकर्ता के रूप में पूजित होकर मानवों का संताप हरते रहे हैं। वर्तमान काल में स्वतंत्रता की रक्षा, राष्ट्रीय चेतना, भावनात्मक एकता और अखंडता की रक्षा के लिए गणेशजी की पूजा और गणेश चतुर्थी के पर्व का उत्साहपूर्वक मनाने का अपना विशेष महत्व है।
गणेशजी को शुद्ध घी, गुड और गेहूँ के लड्डू-मोदक बहुत प्रिय हैं। ये प्रसन्नता अथवा मुदित चित्त के प्रतीक हैं। ये तीनों चीजें सात्विक एवं स्निग्ध हैं अर्थात उत्तम आहार हैं। सात्विक आहार बुद्धि में स्थिरता लाता है। उनका उदर बहुत लम्बा है।
ऋद्धि-सिद्धि गणेशजी की पत्नियाँ हैं। वे प्रजापति विश्वकर्ता की पुत्रियां हैं। गणेश की पूजा यदि विधिवत की जाए, तो इनकी पतिव्रता पत्नियां ऋद्धि-सिद्धि भी प्रसन्न होकर घर-परिवार में सुख-शांति-समृद्धि और संतान को निर्मल विद्या-बुद्धि देती है। सिद्धि से ‘क्षेम’ और ऋद्धि से ‘लाभ’ नाम के शोभा सम्पन्न दो पुत्र हुए। जहां भगवान गणेश विघ्नहर्ता हैं तो उनकी पत्नियां ऋद्धि-सिद्धि यशस्वी, वैभवशाली व प्रतिष्ठित बनाने वाली होती है। वहीं शुभ-लाभ हर सुख-सौभाग्य देने के साथ उसे स्थायी और सुरक्षित रखते हैं। जन-जन के कल्याण, धर्म के सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप प्रदान करने एवं सुख-समृद्धि-निर्विघ्न शासन व्यवस्था स्थापित करने के कारण मानव-जाति सदा उनकी ऋणी रहेगी। आज के शासनकर्ताओं को गणेश के पदचिन्हों पर चलने की जरूरत है।