नई दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर की आज पुण्यतिथि है। उनको लोग प्यार और आदर के साथ गुरूजी कहकर संबोधित किया करते थे। संघ के संस्थापक परमपूज्य डा. हेडगेवार जी ने अपने देहान्त से पूर्व गुरू जी के सक्षम एवं समर्थ कन्धों पर संघ का भार सौंपा था। पूरा देश आज गुरूजी को याद कर रहा है।
गुरूजी का जन्म 19 फ़रवरी 1906 को महाराष्ट्र के रामटेक में हुआ था। उनके पिता का नाम सदाशिव राव (भाऊ जी) तथा माता का श्रीमती लक्ष्मीबाई (ताई) था। वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि और असामान्य स्मरण शक्ति के स्वामी थे। इसके अलावा हाकी, टेनिस, व्यायाम, मलखम्ब आदि के साथ साथ बांसुरी और सितार बजाने में भी निपुण थे।
1924 में इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए बनारस हिन्दू विश्व विद्धालय में एडमिशन लिया। 1926 में बीएससी तथा 1928 में एमएससी की परीक्षा (प्राणी शास्त्र) प्रथम श्रेणी में पास की। उनका विद्यार्थी जीवन अत्यन्त यशस्वी रहा। इसी बीच उनकी रुचि आध्यात्मिक जीवन की ओर जागृत हुई।
1931 में वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राणि-शास्त्र विभाग में निर्देशक बन गए। उनके मधुर व्यवहार तथा पढ़ाने की अद्भुत शैली के कारण सब उन्हें ‘गुरुजी’ कहने लगे और फिर यही नाम उनकी पहचान बन गया। इस बीच उनका सम्पर्क रामकृष्ण मिशन से भी हुआ और उन्होंने विवेकानन्द के गुरुभाई स्वामी अखंडानन्द जी से दीक्षा ली।
स्वामी जी के देहान्त के बाद वे नागपुर लौट आये तथा फिर पूरी शक्ति से संघ कार्य में लग गये। उनकी योग्यता देखकर डा. हेडगेवार जी ने उन्हें 1939 में सरकार्यवाह का दायित्व दिया। 21 जून, 1940 को डा. हेडगेवारजी के देहान्त के बाद उनको सरसंघचालक बनाया गया। उन्होंने संघ कार्य को गति देने के लिए अपनी पूरी शक्ति झोंक दी।
1947 में अंग्रेजों ने चालाकी दिखाते हुए देशी राजाओं को अधिकार दिया कि – वे अपनी मर्जी से भारत या पापिस्तान के साथ जा सकते हैं अथवा स्वतंत्र रह सकते हैं, तब उन्होंने अनेकों राजाओं को समझाकर भारत में मिलने को राजी किया।
कश्मीर के राजा “महाराज हरी सिंह” को कश्मीर के भारत में विलय के लिए भी गुरूजी ने ही राजी किया था।
1948 में गांधी जी हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया और श्री गुरुजी को जेल में डाल दिया गया था। लेकिन उन्होंने धैर्य से सब समस्याओं को झेला और संघ तथा देश को सही दिशा दी। इससे उनकी और भी ज्यादा ख्याति फैल गयी तथा संघ का कार्य भी देश के हर जिले में पहुँच गया।
1962 के भारत-चीन युद्ध के समय उन्होंने स्वयंसेवकों को सेना की मदद करने का आदेश दिया. स्वयंसेवकों द्वारा सेना की मदद से, सैन्य अधिकारी तो क्या, उनके सबसे बड़े बिरोधी “नेहरु” तक प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। 26 जनवरी परेड में स्वयंसेवकों को शामिल करने के लिए खुद नेहरु ने गुरुजी से आग्रह किया जिसे उन्होंने स्वीकार किया।
गुरुजी का धर्मग्रन्थों एवं हिन्दू दर्शन पर इतना अधिकार था कि- एक बार शंकराचार्य पद के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया गया था, पर उन्होंने विनम्रतापूर्वक उसे अस्वीकार कर दिया था।
1970 में वे कैंसर से पीड़ित हो गये थे, 5 जून, 1973 को रात्रि में उनका स्वर्गवास हो गया था। सचमुच ही श्रीगुरूजी का जीवन ऋषि-समान था।