विशेष संवाददाता
नई दिल्ली। बात मई 2014 की है। केंद्र में यूपीए को बुरी तरह परास्त करके मोदी सरकार सत्ता में आई थी। तब ’ को लेकर मंथन शुरू हो गया। पीएम मोदी खुद कई बार एक देश-एक चुनाव की वकालत कर चुके हैं। संविधान दिवस के मौके पर भी प्रधानमंत्री मोदी ने दोहराया था कि आज एक देश-एक चुनाव बहस का मुद्दा नहीं रहा, बल्कि ये विकसित भारत की बड़ी जरूरत है। पीएम मोदी का इतिहास रहा है कि वह असंभव दिखने वालों कार्यों को संभव बनाने में लगे रहते हैं। इसी दिशा में पीएम मोदी की अगुवाई वाली कैबिनेट ने ऐतिहासिक फैसला लेते हुए बुधवार (18 सितंबर) भारत में एक देश एक चुनाव के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। इससे न सिर्फ विकसित और आत्मनिर्भर भारत के संकल्प को मजबूती मिलेगी, बल्कि बार-बार चुनावों में लगने वाले देश के लाखों करोड़ रूपयों की भी बचत होगी। संभवत: संसद के शीतकालीन सत्र में इसके लिए कानून बनाया जाएगा।
लाल किले की प्राचीर से लिया पीएम मोदी का संकल्प अब साकार
पीएम मोदी कैबिनेट ने वन नेशन वन इलेक्शन प्रस्ताव को बुधवार को अपनी मंजूरी दे दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में वन नेशनल वन इलेक्शन का विजन देश के सामने रखा था। उन्होंने 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से दी गई स्पीच में भी वन नेशन-वन इलेक्शन की वकालत की थी। उन्होंने कहा था कि बार-बार चुनाव देश की प्रगति में बाधा पैदा कर रहे हैं। वन नेशन वन इलेक्शन पर विचार के लिए पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की अगुआई में 8 मेंबर की कमेटी पिछले साल 2 सितंबर को बनी थी। 23 सितंबर 2023 को दिल्ली के जोधपुर ऑफिसर्स हॉस्टल में वन नेशन वन इलेक्शन कमेटी की पहली बैठक हुई थी। इसमें पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, गृह मंत्री अमित शाह और पूर्व सांसद गुलाम नबी आजाद समेत 8 मेंबर हैं। केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल कमेटी के स्पेशल मेंबर बनाए हैं। इस कमेटी ने 14 मार्च को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को अपनी 18 हजार 626 पन्नों की विस्तृत रिपोर्ट सौंप दी थी। इस पैनल का गठन 2 सितंबर 2023 को किया गया था। यह रिपोर्ट स्टेकहोल्डर्स-एक्सपर्ट्स से चर्चा के बाद 191 दिन की रिसर्च का नतीजा है।
क्या है वन नेशन वन इलेक्शन और क्यों है देश को इसकी जरूरत
भारत में फिलहाल राज्यों के विधानसभा और देश के लोकसभा चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं। वन नेशन वन इलेक्शन का मतलब है कि पूरे देश में एक साथ ही लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव हों। यानी मतदाता लोकसभा और राज्य के विधानसभाओं के सदस्यों को चुनने के लिए एक ही दिन, एक ही समय पर या चरणबद्ध तरीके से अपना वोट डालेंगे। काबिले जिक्र है कि आजादी के बाद 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे, लेकिन समस्या 1967 के बाद शुरू हुई। इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी को लोकसभा में तो बहुमत मिल गया लेकिन बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस राज में 1968 और 1969 में कई विधानसभाएं समय से पहले ही भंग कर दी गईं। उसके बाद 1970 में लोकसभा भी भंग कर दी गई। इस वजह से एक देश-एक चुनाव की परंपरा टूट गई। दशकों तक इस बारे में किसी ने नहीं सोचा। 2014 में पीएम नरेन्द्र मोदी बने तो वन नेशन-वन इलेक्शन का विचार सामने आया। दिसंबर 2015 में लॉ कमीशन ने वन नेशन-वन इलेक्शन पर एक रिपोर्ट पेश की थी। इसमें बताया था कि अगर देश में एक साथ ही लोकसभा और विधानसभा के चुनाव कराए जाते हैं, तो इससे करोड़ों रुपए बचाए जा सकते हैं। इसके साथ ही बार-बार चुनाव आचार संहिता न लगने की वजह से डेवलपमेंट वर्क पर भी असर नहीं पड़ेगा। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए सिफारिश की गई थी कि देश में एक साथ चुनाव कराए जाने चाहिए।
पैनल ने सभी विधानसभाओं का कार्यकाल 2029 तक करने का दिया सुझाव
• सभी राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल अगले लोकसभा चुनाव यानी 2029 तक बढ़ाया जाए।
• हंग असेंबली (किसी को बहुमत नहीं), नो कॉन्फिडेंस मोशन होने पर बाकी 5 साल के कार्यकाल के लिए नए सिरे से चुनाव कराए जा सकते हैं।
• पहले फेज में लोकसभा-विधानसभा चुनाव एकसाथ कराए जा सकते हैं, उसके बाद दूसरे फेज में 100 दिनों के भीतर लोकल बॉडी के इलेक्शन कराए जा सकते हैं।
• चुनाव आयोग लोकसभा, विधानसभा, स्थानीय निकाय चुनावों के लिए राज्य चुनाव अधिकारियों के परामर्श से सिंगल वोटर लिस्ट और वोटर आई कार्ड तैयार करेगा।
• कोविंद पैनल ने एकसाथ चुनाव कराने के लिए उपकरणों, जनशक्ति और सुरक्षा बलों की एडवांस प्लानिंग की सिफारिश की है।
चुनाव के भारी-भरकम खर्च में कमी, भ्रष्टाचार पर भी लगेगा अंकुश
एक देश एक चुनाव को कैबिनेट की मंजूरी मिलने का मतलब साफ है कि मोदी सरकार 2029 के लोकसभा चुनावों के साथ सभी राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के लिए नया कानून ला सकती है। ‘एक देश-एक चुनाव’ निश्चित तौर पर एक अच्छी धारणा है। इससे चुनाव के भारी-भरकम खर्च में कमी आएगी। समय की बचत होगी। बार-बार चुनाव के काम में लगा दिए जाने वाले कर्मचारियों को अपना काम करने का अधिक मौका मिलेगा। राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को भी चुनाव पर अधिक खर्च नहीं करना पड़ेगा। इसके चलते राजनीतिक भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लग सकता है। प्रधानमंत्री और भाजपा सभी चुनावों को एक साथ कराने पर जोऱ दे रहे हैं। लेकिन कांग्रेस सहित कुछ कमजोर विपक्षी दल एक साथ चुनाव पर अभी सहमत नहीं हैं। खास कर क्षेत्रीय पार्टियों को डर है कि एक साथ चुनाव होने पर सत्ता उनके हाथ से निकल जाएगी। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक विपक्षी दलों का ये डर बिल्कुल तार्किक नहीं लगता है।
लोकसभा-विधानसभा चुनावों का बढ़ता खर्च इकोनॉमी पर बन रहा बोझ
दरअसल, लोकसभा और विधानसभा चुनावों का बढ़ता खर्च देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ बनता जा रहा है। सैंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के मुताबिक आजादी के बाद 1952 में देश के चुनाव पर साढ़े 10 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। तब लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हुए थे। 2019 में लोकसभा और आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, अरुणाचल प्रदेश व सिक्किम विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए, जिस पर करीब 50 हजार करोड़ रुपए खर्च हुए। इस साल ये खर्च बढ़कर करीब 1 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गया। जाहिर है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते तो लगभग इसी खर्च में दोनों चुनाव पूरे हो जाते। लोकसभा के चुनाव का खर्च केंद्र सरकार और विधानसभा चुनाव का खर्च राज्य सरकार देती है। दोनों चुनाव एक साथ होने पर खर्च दोनों में बंट जाता है। विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग होने से सरकारी तंत्र, मंत्री और राजनीतिक दल हमेशा चुनाव की तैयारी में व्यस्त नजर आते हैं।राजनीतिक सुधार जरूरी, एक साथ चुनाव कराना नहीं है मुश्किल
देश में राजनीतिक दलों की भीड़ बढ़ती जा रही है। राज्यों में नए नेता उभर रहे हैं। लेकिन क्षत्रप नेताओं की महत्वाकांक्षा एक बड़ी समस्या भी है, जिसके चलते सरकारें 5 साल का समय पूरा नहीं कर पाती हैं। एक देश -एक चुनाव लागू करने पर इस समस्या से निपटा जाएगा। कोविंद कमेटी ने इसका ब्लू प्रिंट भी सरकार के सामने रखा है। केंद्र सरकार के लिए लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराना मुश्किल नहीं है। संविधान की धारा 356 के जरिए विधानसभाओं को भंग करके एक साथ चुनाव कराए जा सकते हैं। कांग्रेस खुद इसका उपयोग सबसे ज्यादा बार कर चुकी है। इसके अलावा 1977 में जनता पार्टी की सरकार केंद्र में आई तो कांग्रेसी राज्य सरकारों को इसी धारा का उपयोग करके भंग कर दिया गया और राज्यों में विधानसभा के चुनाव कराए गए। 1980 में कांग्रेस केंद्र में लौटी तो राज्यों में जनता पार्टी की सरकारों को भंग करके चुनाव कराए गए।एक देश-एक चुनाव के लिए कोविंद कमेटी का खाका तैयार
वन नेशन वन इलेक्शन पर विचार कर रही पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली कमेटी के पास इसका खाका तैयार है। विधि आयोग के इस प्रस्ताव पर सभी दल सहमत हुए तो यह 2029 से लागू होगा। इसके लिए दिसंबर 2026 तक 25 राज्यों में विधानसभा चुनाव कराने होंगे। मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मिजोरम इसमें शामिल नहीं हैं, क्योंकि इन राज्यों में कुछ माह पहले ही चुनावी नतीजे आए हैं। इसलिए इन विधानसभाओं का कार्यकाल 6 महीने बढ़ाकर जून 2029 तक किया जाएगा। उसके बाद सभी राज्यों में एक साथ विधानसभा-लोकसभा चुनाव होंगे। तीन चरणों के बाद देश की सभी विधानसभाओं का कार्यकाल जून 2029 में समाप्त होगा। सूत्रों के अनुसार, कोविंद कमेटी विधि आयोग से एक और प्रस्ताव मांगेगी, जिसमें स्थानीय निकायों के चुनावों को भी शामिल करने की बात कही जाएगी।पहला चरण : दिल्ली समेत चार राज्यों में चुनाव
• हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्लीः इनके कार्यकाल में 5-8 महीने कटौती करनी होगी। फिर जून 2029 तक इन राज्यों में विधानसभाएं पूरे 5 साल चलेंगी।
दूसरा चरणः 6 राज्य, वोटिंगः नवंबर 2025 में
•बिहारः मौजूदा कार्यकाल पूरा होगा। बाद का साढ़े तीन साल ही रहेगा।
•असम, केरल, तमिलनाडु, प. बंगाल और पुद्दुचेरीः मौजूदा कार्यकाल 3 साल 7 महीने घटेगा। उसके बाद का कार्यकाल भी साढ़े 3 साल होगा।
तीसरा चरणः 11 राज्य, वोटिंगः दिसंबर 2026 में
•उत्तर प्रदेश, गोवा, मणिपुर, पंजाब व उत्तराखंडः मौजूदा कार्यकाल 3 से 5 महीने घटेगा। उसके बाद सवा दो साल रहेगा।
•गुजरात, कर्नाटक, हिमाचल, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुराः मौजूदा कार्यकाल 13 से 17 माह घटेगा। बाद का सवा दो साल रहेगा।EVM से एक बार खर्च बढ़ेगा, लेकिन फिर यह कम होता चला जाएगा
विधानसभा चुनाव के खर्च का सही हिसाब-किताब नहीं है, लेकिन 30 अगस्त 2018 को लॉ कमीशन ने एक और रिपोर्ट पेश की थी। इस रिपोर्ट में कमीशन ने 2014 के लोकसभा चुनाव के आसपास हुए विधानसभा चुनाव के खर्च की जानकारी दी थी। उस रिपोर्ट में कमीशन ने महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, हरियाणा, झारखंड और दिल्ली में लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में कितना खर्च हुआ, इसकी तुलना की थी और पाया था कि इन राज्यों में लोकसभा चुनाव के वक्त जितना सरकारी खर्च हुआ, लगभग उतना ही विधानसभा चुनाव में भी हुआ था। एक साथ चुनाव कराने से करोड़ों का खर्च बचाया जा सकता है। लॉ कमीशन और नीति आयोग की रिपोर्ट में यही कहा गया है कि अगर लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराए जाते हैं, तो इससे खर्चा काफी कम किया जा सकता है। हालांकि, साथ में चुनाव कराने से थोड़ा खर्च जरूर बढ़ेगा, लेकिन इतना नहीं जितना अलग-अलग चुनाव कराने पर बढ़ता है। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले अगस्त 2018 में लॉ कमीशन की एक रिपोर्ट आई थी। इसमें कहा था कि अगर 2019 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ होते हैं, तो उससे 4,500 करोड़ रुपए का खर्च बढ़ेगा। ये खर्चा इसलिए क्योंकि EVM ज्यादा लगानी पड़ेंगी। इसमें ये भी कहा गया था कि साथ चुनाव कराने का सिलसिला आगे बढ़ता है, तो 2024 में 1,751 करोड़ रुपए का खर्च बढ़ता। यानी, धीरे-धीरे ये एक्स्ट्रा खर्च भी कम हो जाता।
विकसित भारत बनाने में एक साथ चुनाव से ये होंगे फायदे
लॉ कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में दो फेज में चुनाव कराए जा सकते हैं। पहले फेज में लोकसभा चुनाव के साथ ही कुछ राज्यों के चुनाव भी करा दिए जाएं और दूसरे फेज में बाकी बचे राज्यों के चुनाव साथ में करवा दें। हालांकि, इसके लिए कुछ राज्यों का कार्यकाल बढ़ाना पड़ेगा, तो किसी को समय से पहले ही भंग करना होगा। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति ने ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के मुद्दे पर 62 पार्टियों से संपर्क किया था और इस पर जवाब देने वाले 47 राजनीतिक दलों में से 32 ने एक साथ चुनाव कराने के विचार का समर्थन किया, जबकि 15 दलों ने इसका विरोध किया। रिपोर्ट के अनुसार, कुल 15 पार्टियों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी।
• चुनाव पर होने वाले करोड़ों के खर्च से बचत
• बार बार चुनाव कराने से निजात
• फोकस चुनाव पर नहीं बल्कि विकास पर होगा
• बार-बार आचार संहिता का असर पड़ता है
• काले धन पर लगाम भी लगेगी