लखनऊ। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भले ही अभी समय बचा हो, लेकिन सियासी बिसात अभी से बिछाई जाने लगी है. योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली बीजेपी ‘राम’ को घर-घर पहुंचाने में जुटी है तो सपा से लेकर बसपा तक ‘परशुराम’ की नाव पर सवार होकर सत्ता के वनवास को खत्म करने की कोशिशों में हैं.
अखिलेश यादव से लेकर मायावती तक भगवान परशुराम की मूर्ति लगवाने का वादा कर सूबे के ब्राह्मण वोट को साधने की कवायद में है. दरअसल, हालिया एनकाउंटर के बाद से सूबे में ब्राह्मण राजनीति को लेकर सियासी समीकरण बनाने की कोशिश चल रही है.
सपा और कांग्रेस के बड़े नेताओं ने ब्राह्मणों की उपेक्षा का आरोप लगाया और ब्राह्मणवाद का कार्ड भुनाने में जुटे हैं. सोशल मीडिया पर भी उत्तर प्रदेश की सियासत में ब्राह्मण वोट बैंक की चर्चाएं तेज हैं. सूबे में करीब 10 फीसदी ब्राह्मण मतदाता संख्या के आधार पर भले कम हों, लेकिन माना जाता कि राजनीतिक रूप से सत्ता बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखते हैं.
2017 में सत्ता से बेदखल और 2019 में बसपा से हाथ मिलाने के बाद भी लोकसभा में जब समीकरण फेल हो गया तो अखिलेश यादव अब सूबे में नए राजनीतिक समीकरण बनाने जुगत में है. मौके की नजाकत को समझते हुए अखिलेश यादव ब्राह्मणों को साधने की कोशिश में हैं. समाजवादी पार्टी ने जयपुर में ब्राह्मणों के प्रतीक देवता भगवान परशुराम की मूर्ति बनवा डाली और ऐलान किया.
अखिलेश के ब्राह्मण प्रेम को देखते हुए बसपा प्रमुख मायावती कैसे पीछे रहने वाली थीं. मौके की नजाकत को समझते हुए मायावती ने रविवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में ऐलान कर दिया कि जातियों के महापुरुषों का सम्मान बसपा से ज्यादा किसी पार्टी ने नहीं किया है. ऐसे में अगर बसपा सत्ता में आती है तो न सिर्फ भगवान परशुराम की मूर्ति लगाई जाएगी बल्कि अस्पताल, पार्क और बड़े-बड़े निर्माण को भी महापुरुषों के नाम पर किया जाएगा.
दरअसल, बीजेपी सवर्णों के एकमुश्त वोट बैंक पर बैठी हुई है और जिसमें उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण न सिर्फ एक बड़ा वोट बैंक है बल्कि राजनीतिक और सामाजिक ओपिनियन मेकर भी माना जाता है. ऐसे में अगर चुनाव में खुद को बीजेपी के मुकाबले खड़ा करना है तो ब्राह्मण और दूसरी दबंग और मजबूत सवर्ण जातियों को अपने पाले में करना ही होगा. परंपरागत तौर पर उत्तर प्रदेश में राजनीतिक रूप से ब्राह्मण और ठाकुरों में एक प्रतिस्पर्धा रही है, जिसे अलग-अलग वक्त पर बड़े नेता और पार्टियां इस्तेमाल भी करती रही हैं.
इन सारे समीकरण के बावजूद बीजेपी अपने दौर में इन दोनों वोट बैंक को एक साथ अपने पाले में रखने में कामयाब रही है, लेकिन सपा से लेकर बसपा और कांग्रेस सहित सभी विपक्षी पार्टियां इस जुगाड़ में हैं कि किसी तरीके से सवर्णों के एक बड़े वोट बैंक में सेंध लगाई जाए. विपक्ष को लगता है कि जिस तरीके से 2007 में मायावती की तरफ ब्राह्मण गए थे आने वाले चुनाव में ब्राह्मणों का एक बड़ा तबका बीजेपी से मुंह मोड़ सकता है.
ऐसा नहीं है कि ब्राह्मणों के वोट बैंक की ताकत का एहसास विपक्ष को नहीं है. दरअसल अखिलेश यादव ने 2012 में सत्ता में आते ही मायावती के ब्राह्मण वोट बैंक के काट की शुरुआत की थी. अखिलेश यादव सत्ता में रहते हुए जानेश्वर मिश्र के नाम पर पार्क बनवाया तो सूबे में भगवान परशुराम जयंती पर छुट्टी घोषित की थी. इतना ही नहीं सपा हर साल पार्टी कार्यलय में परशुराम जयंती मनाती रही है.
बहरहाल उत्तर प्रदेश के सियासी माहौल में समाजवादी पार्टी ने भगवान परशुराम की मूर्ति के साथ फोटो ट्वीट कर और लखनऊ में उनकी मूर्ति लगाने का ऐलान कर सियासत को गरमा दिया है. दूसरी विपक्षी पार्टियां अपने -अपने तरकस से अपनो तीर निकालने लगी हैं. अखिलेश यादव ने 2012 में माता प्रसाद पांडे को विधानसभा अध्यक्ष बनवाया और तीन ब्राह्मण मंत्री अपनी कैबिनेट में रखे. समाजवादी पार्टी हर साल परशुराम जयंती मनाती रही और एक बार फिर 2022 को देखते हुए अभी से ब्राह्मण वोट पर अपनी नजरें गड़ा दी हैं.
ऐसे में मायावती भगवान परशुराम के जरिए एक बार फिर अपने पुराने सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले को अमलीजामा पहनाना चाहती हैं. रविवार को मायावती के प्रेस कॉन्फ्रेंस को भी इसी के जवाब के तौर पर देखा जा रहा है. उन्होंने भी सरकार बनने पर ब्राह्मणों के लिए अपने ऐलान भी कर दिया है
तीनों विपक्षी पार्टियों ने मुखर तौर पर अपने ब्राह्मण प्रवक्ताओं को आगे कर रखा है, लेकिन बीजेपी इस मुद्दे पर चर्चा से बचना चाहती है. राष्ट्रवाद जैसे मुद्दे अभी भी उसके लिए सबसे बड़ी ताकत हैं. बीजेपी को लगता है कि वह अपने वोट बैंक पर मजबूत पकड़ बनाए रखेगी. हालांकि, देखना होगा कि अब ब्राह्मण समुदाय बीजेपी के राम को तरजीह देते हैं या फिर सपा-बसपा के परशुराम पर अपना विश्वास जताते हैं.