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हिंदी पत्रकारिता दिवस (30 मई) पत्रकारों के आत्म मंथन का दिवस है, चौथा स्तंभ अपना वजूद खो चुका है।

पत्रकारिता दिवस पर स्वतन्त्र पत्रकार सुशील कुमार शर्मा के संस्मरण

गाजियाबाद ।  30 मई को देश में हिन्दी का पहला अखबार निकला था इसलिए इस दिवस को हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाते हैं। वर्तमान में पत्रकारिता पर जिस तरह से आरोप लग रहे हैं,यह बड़ी शर्मसार होने वाली स्थिति है। पत्रकारों को आत्ममंथन करना चाहिए। चौथा स्तंभ अपना वजूद को चुका है । कार्टूनिस्ट भांड और बिकाऊ मीडिया पर कार्टून बना रहे हैं। उसे देखकर भी मीडिया में कोई आक्रोश,कोई सुधार नजर नहीं आ रहा है। अखबार अब अखबार नहीं रहे उद्योग बन गये है। अब लोगों की सरकार से और स्थानीय प्रशासन से शिकायतें स्थानीय अखबार में भी नहीं छपती। कुछ स्थानीय अखबार तो केवल छपास के रोगी लोगों के महिमा मंडन की ही पत्रकारिता कर रहे हैं। मुझे (सुशील कुमार शर्मा) पत्रकारिता करते 50 वर्ष हो गये।

जब 1973 में मैंने अपना साप्ताहिक अखबार युग करवट संभाला उस समय के स्थानीय साप्ताहिक अखबार भी तब के गिने-चुने राष्ट्रीय दैनिक अखबार से कम वजन नहीं रखते थे। दो नये पैसे के डाक टिकट से अपना अखबार देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से लेकर प्रदेश के राज्यपाल,मुख्यमंत्री, मंत्री और जिले के तमाम आला अधिकारियों को भेजते थे। दैनिक केवल राष्ट्रीय स्तर पर होते थे और उनके भी मात्र दो संस्करण स्थानीय और डाक संस्करण होते थे। स्थानीय संवाददाता तब डाक से ही खबर भेजते थे। उनकी खबर कई दिन बाद कट-छंटकर छप पाती थी। इसलिए राष्ट्रीय दैनिकों के संवाददाता या तो अपना साप्ताहिक अखबार निकालते थे और जो नहीं निकाल सकते थे वह स्थानीय साप्ताहिक अखबारों में अपनी खबर छपवाते थे। राष्ट्रीय और स्थानीय अखबार सभी ट्रेडल प्रेस में ही छपते थे। फोटो के लिए ब्लाक बनवाने पडते थे। देश का पहला हिन्दी का अखबार “उदन्त मार्तण्ड” 197 वर्ष पूर्व गुलामी काल में 30 मई 1826 को कलकत्ता से पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने प्रकाशित किया था। इसकी अवधि साप्ताहिक थी। अखबार के सम्पादक व प्रकाशक वह खुद थे । इसलिए पंडित जुगल किशोर शुक्ल और उनके द्वारा प्रकाशित देश का पहला हिन्दी अखबार “उदन्त मार्तण्ड” देश का इतिहास बना। इस दिन को हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में देशभर में मनाया जाता है।

हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले पंडित जुगल किशोर शुक्ल का नाम हिन्दी पत्रकारिता जगत में हमेशा के लिए अमर हो गया। इस अखबार के पहले अंक की 500 प्रतियां प्रकाशित हुई। एक गैर हिन्दी भाषी राज्य में हिन्दी का अखबार अपनी जमीन मजबूत नहीं कर पाया।हिंदी भाषी पाठकों की कमी प्रमुख कारण रही। हिंदी भाषी राज्य दूर होने के कारण तब डाक व्यय बहुत खर्चीला पड़ता था। पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने अंग्रेज सरकार से अनुरोध भी किया कि उन्हें अखबार डाक से भेजने के लिए रियायत दें लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। सरकारी विभागों ने भी उनके अखबार के प्रति कोई रूचि नहीं दिखाई । इसलिए यह अखबार अपने एक वर्ष का भी कार्यकाल पूरा नहीं कर सका और 4 दिसम्बर 1826 को बंद हो गया। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए देश के गुलामी काल में पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने देश का पहला हिन्दी का अखबार निकालने का साहस किया और कई माह तक चलाया भी।

यह तो लगभग दो सौ वर्ष पूर्व की बात है। उस समय अखबार निकालने का कोई साधन ही नहीं था। मेरे( सुशील कुमार शर्मा) पिता स्वर्गीय श्याम सुन्दर वैद्य (जो तड़क वैद्य के नाम से प्रसिद्ध थे) ने तो जब वर्ष 1961 में 63 वर्ष पूर्व जब साप्ताहिक युग करवट अपना अखबार निकाला था तो तब अखबार का टाइटिल भी शिमला से मिलता था। महीनों लग जाते थे पत्र व्यवहार में ही। आज तो पूरे देश के टाइटिल आरएनआई के दिल्ली कार्यालय से मिलते हैं। पहले आवेदन और आदेश मात्र पोस्ट कार्ड पर ही होते थे। आजादी के बाद रजिस्टर्ड अखबार को दो नये पैसे में पूरे देश में भेज सकते थे। मैंने अपना अखबार 1973 से संभाला। मुझे याद है मेरे सामने जब डाक टिकट दो नये पैसे से बढ़कर पांच पैसे हुआ था तो बहुत भारी पडा था। यदि अंग्रेजी काल में पंडित जुगल किशोर शुक्ल को रियायती डाक की सुविधा आजाद भारत की तरह से मिल गयी होती तो उनका अखबार इतना जल्दी बंद नहीं होता। जब पिताजी ने अपना अखबार शुरू किया तब गाजियाबाद मेरठ जिले की तहसील था। एक ही कोतवाली घंटाघर थी। पहले तहसील घंटाघर के पास थी तब आज जिस है उसी जगह थी कचहरी नवरंग सिनेमा के पीछे और सुशीला कालिज रोड पर दो जगह थी। नवरंग के पीछे की कचहरी में एस डी एम कोर्ट भी थी जहां एसडीएम बैठते थे। वही तहसील के सबसे बड़े अधिकारी होते थे। उस समय प्रिंटिंग प्रेस गिनी-चुनी ही थी। वह भी घरों में ही लगी थीं । कम्पोजीटर और मशीनमैन सभी प्रेसों में नहीं होते थे। अधिकांश प्रेसों में तो घर के बच्चे ही अक्षर जोड़ने का काम करते थे। कागज की तो लम्बे समय तक गाजियाबाद में कोई दुकान ही नहीं थी। कागज की पहली दुकान बहुत साल बाद गाजियाबाद जिला बनने पर दिल्ली पेपर मार्ट के नाम से नई बस्ती में खुली थी। प्रेस का मैटीरियल,कागज और ब्लाक तथा ब्लाक मेकिंग सभी दिल्ली चावड़ी बाजार में था।

उस जमाने में दिल्ली के लिए ट्रेन और बस गिनी-चुनी थी और उनकी छत पर भी जगह नहीं मिलती थी। पिताजी मुझे साथ ले जाते थे इसलिए मुझे सब याद है । किसी का फोटो छपना हो या विज्ञापन का ब्लाक बनना हो तो पहले दिल्ली देकर आते थे फिर एक- दो-दिन बाद का जब वह समय देता था तो लेने जाना पड़ता था। सरकारी विज्ञापन के ब्लाक सरकारी विभागों द्वारा भेजे जाते थे। पत्र सूचना कार्यालय शासकीय मान्यता वाले अखबारों को राष्ट्रीय नेताओं और देश की ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी और उससे संबंधित फोटो के ब्लाक पत्रकारों को भेजते थे। बाद में एमएमएच कालिज रोड पर अजंता स्टोर्स के सामने रहने वाले बी ड़ी शर्मा दिल्ली से ब्लाक बनवाने का काम करने लगे। वह जब तक जीवित रहे वही एकमात्र ब्लाक बनवाने का कार्य करते थे। दिल्ली के एक ब्लाक मेकर ने अम्बेडकर रोड पर हिंद ब्लाक वर्क्स ने नाम से ब्लाक बनाना शुरू भी किया था लेकिन क्वालिटी अच्छी न होने के कारण चल नहीं पाया। आज गाजियाबाद, हापुड़ आदि जिले बन गए हैं । 63 वर्ष पूर्व वह तब कस्बे ही थे। कस्बों में भी गांव का माहौल था और उनसे सटे गांव ही गांव थे। मेरे पिता पैदल ही गांव दर गांव जाकर अपने अखबार के वार्षिक सदस्य बनाने जाते थे। जो पहले मात्र 25/- था बाद में मेरे समय में 50/- हो गया था। पिताजी जी वैद्य थे वह अखबार निकालने से पहले खुद दवाएं व आसव बनाकर प्रवास पेटी में भरकर गांव दर गांव मरीजों का इलाज करने जाते थे। कई -कई दिन में वह घर आते थे।

एक बार वह खुद बहुत बीमार पड़े तो उनके मित्र चौधरी शिव राज सिंह एडवोकेट ने उन्हें अखबार निकालने की सलाह दी। वैद्य होने के कारण उनका सम्पर्क गांवों में दूर दराज तक था। गांवों में लोग उन्हें जानते थे और उनका सम्मान करते थे। यही सब सर्किल उनको पत्रकारिता में काम आया। मोरटा, दुहाई, मुरादनगर,पतला, निवाड़ी,भोजपुर और आसपास के दर्जनों गांवों में अखबार के वार्षिक सदस्य थे। हापुड़ रोड पर भी डासना, मसूरी ,गालन्द, पिलखुवा, हापुड़, असौड़ा, कुचेसर रोड,बाबूगढ़,गढ़ ,ब्रजघाट तक तथा धूमदादरी, सिकन्दराबाद व लौनी तक अखबार के वार्षिक सदस्य थे। आज यह अविश्वसनीय लगे लेकिन उस समय लोगों को अखबार खरीद कर पढ़ने की आदत नहीं थी।

बहुत कम घरों में दैनिक अखबार आते थे। लोगों को पब्लिक लाइब्रेरी में अखबारें पढ़ने की आदत थी। उसके बाद जब आफसैट तकनीक आ गयी तो ट्रेडल प्रेस और ब्लाक का काम ही समाप्त हो गया था। मुझे याद है गाजियाबाद में कागज की जब कोई दुकान नहीं थी तब प्रेस के कर्मचारियों को ही साईकिल से दिल्ली से कागज लाना पड़ता था। आज अखबार निकालना एक उद्योग की श्रेणी में आता है। कई बड़े अखबारों का प्रकाशन पूंजीपतियों द्वारा राजनितिक लाभ के लिए किया जा रहा है। उन अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों को कान्टेक्ट बेस पर रखा जाता है। अखबार के लिए विज्ञापन लाने और उससे कमीशन से ही उनकी सेलरी बनती है।वह अपनी मर्जी से कोई खबर नहीं छपवा सकते।पहले वही अखबार निकलता था जो सामाजिक विद्रूपताओं के विरोध में कहने का साहस रखता था। लोगों की आवाज शासन-प्रशासन तक पहुंचाने का काम पत्रकार करते थे। आज जिस तरह से पत्रकारों को नजरंदाज किया जाता है हमारे समय तक ऐसी स्थिति नहीं थी।

लगभग 40-45 वर्ष पूर्व हमारे समय में केन्द्रीय और प्रदेश के मंत्री की प्रेस वार्ता में भी यदि अधिक देर इंतजार करना पड़ता था तो हम वार्ता का बहिष्कार कर देते थे। अधिकारी अनुनय- विनय कर ही रोक पाते थे। आज पत्रकारों का इतना साहस नहीं है ।नाही अखबारों के मालिकों का इतना साहस है। हमारे समय का पत्रकारों की एकता का एक उदाहरण है जब गाजियाबाद जिले के सांसद बी पी मौर्य थे और विधायक प्यारे लाल शर्मा थे तब एक तेजतर्रार कलेक्टर चन्द्र पाल को एक पत्रकार की अनुपस्थिति में उसके प्रति अभद्र टिप्पणी करने पर कलेक्टर को सूचना विभाग में आकर जिले के समस्त पत्रकारों से माफी मांगने पर विवश कर दिया था। तब पत्रकारों की एक ही मुख्य संस्था गाजियाबाद जर्नलिस्ट्स क्लब होती थी।

आज के दिन पत्रकारों को आत्ममंथन जरूर करना चाहिए कि हम अपने दायित्वों का निर्वहन निस्वार्थ भाव से कर रहे हैं या नहीं। अपने पाठकों की अपेक्षाओं पर खरा उतर रहे हैं या नहीं। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ अपना वजूद खो चुका है। मीडिया पर भांड और बिकाऊ होने के आरोप लग रहे हैं।पीत पत्रकारिता पहले भी थी लेकिन कुछ ही बदनाम चेहरे होते थे जिनकी मुहिम अखबार की आड धन कमाने की होती थी। ऐसे पत्रकारों में आज प्रतिष्ठित कई वरिष्ठ पत्रकार हैं। दुर्भाग्यवश आज पत्रकार ऐसे ही पत्रकारों को आदर्श मान उनका अनुसरण कर रहे हैं।

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