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सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में एकला चलो की नीति – क्या आत्मघाती साबित होगी ?

अश्‍वनी राणा

नई दिल्‍ली। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का परिचालन, निति निर्धारण और लक्ष्य आजकल व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा आधारित होते जा रहे हैं जबकि किसी भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक का नेतृत्व व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा आधारित न होकर बैंक की दीर्धकालीन पालिसी और विकास की योजनाओं के अनुरूप होना चाहिए। बैंकों में प्रबंध निदेशक, कार्यकारी निदेशक और बोर्ड के सदस्य बहुत कम समय के लिए रहते हैं और किसी भी व्यक्ति की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा बैंकों के दीर्घकालीन पालिसी और विकास की योजनाओं पर असर करती है। हर बैंक का सेंकडों वर्षों का अपना इतिहास होता है, अपना वर्किंग कल्चर होता है। दूसरे बैंक से आने वाले अधिकारी को नये बैंक के वातावरण में अपने को ढालने का प्रयास करना चाहिए न कि पुराने बैंक के अनुसार नये बैंक की कार्यशैली में परिवर्तन लाना चाहिए।

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक आजकल निजी क्षेत्र के बैंकों के समान दिखने ओर काम करने का प्रयास कर रहे हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में प्रबंध निदेशक का कार्यकाल बहुत कम होता है, वहीँ निजी क्षेत्र के बैंकों में चेयरमैन लम्बे समय तक नेतृत्व करते हैं। हमारे सामने दो प्रमुख निजी बैंकों के चेयरमैन के उदाहरण हैं, जिनमें के.वि.कामथ आई.सी.आई.सी.आई. बैंक ने 13 वर्षों तक और दीपक पारिख एच.डी.एफ.सी. बैंक ने 20 वर्षों तक बैंक का नेतृत्व किया है और बैंकों के लिए दीर्घकालीन योजना पर काम किया है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में मिलने वाले कम समय के कारण बहुत से प्रबंध निदेशक बैंक में उनसे पूर्व चल रही कार्य योजना को धता बताकर, अपनी शार्टकट योजना पर काम करने लगते हैं, जिसके कारण अनेकोनेक बार उसका बैंक कर्मचारियों और अधिकारियों पर नकारात्मक प्रभाव तो पड़ता ही है, बैंक का व्यवसाय भी दीर्घकाल में बाधित होता है।

कई बार ऐसा देखने में आता है कि एक प्रबंध निदेशक के जाने के बाद जो भी नया प्रबंध निदेशक आता है वो अपना व्यक्तिगत एजेंडा लागू करना चाहता है। उसको लगता है पहले के लोगों ने अच्छी तरह से काम नहीं किया और वो बैंक को नई ऊचाई पर लेकर जाना चाहता है। बैंक का विकास करना और उसे आगे लेकर जाना तो ठीक है लेकिन उसके लिए कभी कभी बैंकों में पहले से चल रहे विकास के कार्यों पर रोक लगाकर नये तरह के प्रयास करने की कोशिश की जाती है, जिससे अधिकारियों और कर्मचारियों पर दबाव बनाया जाता है, और कई बार व्यक्तिगत अहम के कारण अधिकारियों और कर्मचारियों को अपमानित भी किया जाता है। बैंकों में पहले से ही कर्मचारियों की कमी है और दबाव डालकर टारगेट पूरे करवाने में काम का माहौल खराब होता है तथा काम की गुणवत्ता पर भी इसका असर पड़ता है । बैंकों में उच्च अधिकारी से लेकर कर्मचारी और यूनियन यदि किसी तरह के गलत निर्णय का विरोध करते हैं तो उन्हें उसका खामियाज़ा भुगतना पड़ता है। बैंकों में शीर्ष नेतृत्व के पास ट्रान्सफर और प्रमोशन का एक बड़ा हथियार है जिसके कारण शीर्ष नेतृत्व एकला चलो में कामयाब हो जाता है।

बैंकों में प्रबंध निदेशक, कार्यकारी निदेशक की नियुक्ति बहुत कम समय के लिए होती है और बार बार उनके द्वारा बैंकों में बड़े परिवर्तन करने से जहाँ एक ओर बैंक की विकास प्रक्रिया में बाधा आती है और बार बार बैंक की सरंचना को बदलने से बैंकों का काफी खर्चा भी होता है । एक प्रबंध निदेशक ब्रांच खोलने पर जोर डालता है तो दूसरा आने वाला घाटे में चल रही ब्रांचों को बंद करने का फैसला लेता है, एक बैंक की सरंचना में परिवर्तन पर जोर डालता है तो दूसरा आने वाले बैंक में स्टाफ ज्यादा है उसे कम करने की जिद से बैंक कर्मचारियों पर दबाव बना देता है। आने वाले कुछ प्रबंध निदेशक अपने को अच्छा साबित करने और किस प्रकार वित् मंत्रालय को खुश किया जाए इसी में लगे रहते हैं, और इन सब के बीच अपना कार्यकाल समाप्त करके चले जाते हैं । यदि वित् मंत्रालय का सभी बैंकों में एक जैसी सरंचना का आदेश है तो कोई भी बैंक कैसे इसका उलंघन करता है। सरकार यदि इस पर ध्यान दे तो बैंकों का उचित विकास हो सकता है और प्रॉफिट को और भी बढ़ाया जा सकता है।

यह सही है की किसी भी बैंक की प्रगति में शीर्ष नेतृत्व का बड़ा योगदान होता है उसकी कार्यकुशलता से बैंक प्रगति करता है, लेकिन यदि शीर्ष नेतृत्व बैंक के इतिहास को देखते हुए लम्बे समय की कार्य योजना पर बैंक के सभी लोगों को शामिल करते हुए निर्णय लेता है तो बैंक की प्रगति तो होगी ही कर्मचारियों का उत्साह भी बना रहेगा और वर्षों तक शीर्ष नेतृत्व को याद किया जायेगा। इसलिए बैंकों में एकला चलो की जगह सामूहिक निर्णय और सामूहिक नेतृत्व का पालन करना समय की मांग है ।

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