विनीत शर्मा “नादान”
लेखक, पत्रकार/स्तंभकार
वर्तमान राजनीति जिस दौर से गुजर रही है उसमें कुछ दलों को अपने लिए नई ज़मीन तलाशना ज़रूरी हो गया है तो कुछ दलों को अपनी जमीन बनाये रखना और बचाये रखना महत्वपूर्ण है। लगभग 10 महीने बाद 2024 में लोकसभा चुनाव होने हैं, जिसमें राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते कांग्रेस की जिम्मेदारी तथा आवश्यकता दोनों ही बड़ी हैं। 2014 और 2019 का चुनाव बुरी तरह हारने के बाद कांग्रेस तीसरी बड़ी हार का सामना करना नहीं चाहेगी और न ही अफोर्ड कर सकेगी।राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन की आवश्यकता कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों को है परन्तु राष्ट्रीय दल होने के नाते कांग्रेस को ज्यादा है, जिसके लिए ममता बनर्जी, शरद पवार, केसीआर, नीतीश कुमार, स्टालिन तथा केजरीवाल सभी हाथ पैर मार रहे हैं, प्रयासरत हैं। उद्देश्य सभी का एक है कि किसी प्रकार भी मोदी को 2024 में सत्ता से हटाना। केजरीवाल अपने दो मंत्रियों को लेकर, जो जेल में बंद है, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर घिरे हुए हैं/फंसे हुए हैं, इसलिए उनकी आवश्यकताएं/प्राथमिकताएं कुछ अलग तरह की हैं।
अब शुरू करते हैं दिल्ली से जहां से देश पर शासन किया जाता है और यहीं से आम आदमी पार्टी का सफर भी शुरू हुआ था तथा कांग्रेस के संदर्भ के साथ! आम आदमी पार्टी का ममता बनर्जी, शरद पवार, के सी आर, नीतीश कुमार, स्टालिन या उद्धव ठाकरे जैसे लोगों से राजनैतिक हितों का कोई टकराव नहीं है परन्तु कांग्रेस के साथ ऐसा नहीं है। दिल्ली से शीला दीक्षित के खिलाफ ताल ठोंक कर राजनीतिक सफर शुरू करने वाली आप का पहला निशाना कांग्रेस ही रही है। लगातार तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित को सत्ता से बेदखल करके आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में सत्ता का स्वाद चखा था, जिसमें भाजपा को नुक्सान हुआ लेकिन सबसे ज्यादा हानि कांग्रेस को उठानी पड़ी जो दिल्ली से लगभग खत्म ही हो गयी।
केजरीवाल को दूसरी सफलता पंजाब में मिली जहां आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को बेदखल कर सत्ता पर कब्जा किया। पंजाब की दूसरी महत्वपूर्ण पार्टी शिरोमणि अकाली दल का बसपा से गठबंधन था तो उन्होंने भी कुछ खोया ज़रूर मगर ये मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में भी नहीं थे इसलिए उनके पास खोने के लिए भी ज्यादा नहीं था, वहीं भाजपा का कोई विशेष आधार पंजाब में था ही नहीं। पंजाब से उत्साहित आम आदमी पार्टी ने अन्य राज्यों में भी विस्तार की रणनीति के तहत विधानसभाओं के चुनाव लड़े। दो राज्यों गोवा और गुजरात में आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन कुछ बेहतर रहा, यहां उसने कांग्रेस के ही वोटबैंक में सेंध लगाई और कांग्रेस की हार में उसकी कुछ न कुछ भूमिका भी रही है। थोड़ा और अतीत में झांक कर देखा जाये तो जिस अन्ना हजारे आंदोलन से अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी बनी जन्म हुआ था उस के निशाने पर कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए गठबंधन ही था जिसमें केजरीवाल ने राहुल गांधी,कपिल सिब्बल, डी राजा,कलमाड़ी सहित मनमोहन सिंह के बाईस भृष्ट नेताओं व अन्य गैर कांग्रेसी मुलायम सिंह, मायावती, शरद पवार आदि नेताओं की सूची जारी की थी।
कांग्रेस की 2024 के लिए विपक्ष की एकता पर दुविधा यहीं खत्म नहीं होती, और भी बहुत से प्रश्न है जिनके उत्तर कांग्रेस आलाकमान को खोजने होंगे। जिन राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें हैं वहां सरकार चला रहे राज्य स्तरीय दल अपने लिये (लायन्’स शेयर) या बड़ी भूमिका, बड़ा हिस्सा सुनिश्चित करना चाहेंगे, ज्यादा सीटें भी कांग्रेस से मांगेंगे। दिल्ली और पंजाब में यदि आप मुख्य दावेदार है तो बंगाल में ममता, तेलंगाना में के सी आर, बिहार में लालू और नीतीश, तमिलनाडु में स्टालिन तथा महाराष्ट्र में शरद पवार और उद्धव ठाकरे। उत्तर प्रदेश में अखिलेश पहले ही कह चुके हैं कि यहां कांग्रेस का आधार नहीं है। ऐसे में एकजुट होकर, राष्ट्रव्यापी गठबंधन बनाकर लड़ने और सम्मान तथा अपनी ज़मीन बचाये रखना कांग्रेस के लिए पहली चुनौती सामने आने वाली है जिससे पार पाना कांग्रेस नेतृत्व के लिए आसान नहीं होगा।
स्थितियां एवं परिस्थितियां आसान होने वाली नहीं है क्योंकि बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव की बीआरएस, आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर जैसे कई ऐसे राज्य हैं जहां कांग्रेस का क्षेत्रीय दलों के साथ सीधा टकराव तो है लेकिन कोई कारगर विपक्षी गठबंधन भी इनके बिना बन पाना सम्भव नहीं लगता। कांग्रेस के चुनौतियों की गति बात करें तो ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी से लड़ने के लिये, तेलंगाना में केसीआर को तथा पंजाब में आम आदमी पार्टी को किसी के साथ की जरूरत नहीं है। दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी को किसी की जरूरत नहीं है। इन सबकी महत्वाकांक्षा तो हैं परन्तु सीमित हैं, राज्य स्तर पर हैं, लेकिन कांग्रेस देश का सबसे पुराना राष्ट्रीय दल है और उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी राष्ट्रीय हैं।
कांग्रेस नेतृत्व को देखना होगा 2024 के लिए कि तमाम दलीय अंतर्विरोधों के बावजूद एक व्यापक विपक्षी गठबंधन को न केवल खड़ा किया जाये बल्कि चुनाव तक यह बना भी रहे। यह न केवल एक चुनौती है, बल्कि पार्टी के लिये संजीवनी भी सिद्ध होगी, कांग्रेस को राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिये आवश्यक भी है।कांग्रेस की नज़र 2024 पर तो है और विपक्षी एकता बनाना भी उसकी राजनीति और रणनीति का हिस्सा है लेकिन यह 2024 कांग्रेस सहित समस्त विपक्ष के लिए करो या मरो जैसी स्थिति पैदा कर रहा है। यदि 2024 भी उतनी ही बुरी तरह हार गये जैसा 2014 तथा 2019 में क्या और कितना बच पायेगा कहा नहीं जा सकता।