विनीत शर्मा “नादान”
कर्नाटक में चुनाव परिणाम आये आधा माह बीत चुका है, कुछ किंतु परंतु परंतु एवं बैकडोर राजनीतिक उठा-पटक के बाद केबिनेट शपथ ग्रहण समारोह भी रुठने मनाने की प्रक्रिया के दौरान सम्पन्न हो गया। इस से संबंधित लेख, विभिन्न मत और टीवी डिबेट, डिस्कशन लगातार देखने सुनने को मिल रहे हैं। तमाम विश्लेषण किये जा रहे हैं कि भाजपा क्यों हारी और वह भी इतनी बुरी तरह कि केवल 66 सीट पर अटक गयी। कांग्रेस ने निश्चित तौर पर एक अच्छा प्रदर्शन किया है 135 सीट जीतकर जो पार्टी की यह एक बड़ी जीत है विशेष कर तब जबकि पार्टी का नेतृत्व (भले ही आर्टिफिशियली) परिवार से निकल कर बाहर गया है। अध्यक्ष खड़गे चूंकि कर्नाटक से ही आते हैं इसलिए उनका भी महत्वपूर्ण रोल रहा है इस प्रदर्शन में तथा कर्नाटक के वोटरों को कांग्रेस की और खींचने में।कई दशक बाद मिली ऐसी जीत जश्न की वजह होना स्वाभाविक है जिसको एंजॉय करना उनका हक़ भी बनता है।
राजनीतिक पंडित इसके कई कारण गिना रहे हैं जैसे कि पूर्ववर्ती भाजपा सरकार (40% कमीशन वाली) का भ्रष्टाचार, कांग्रेस का संगठित नेतृत्व सिद्धरमैया तथा डी के शिवकुमार की जोड़ी की एकजुट मेहनत (चुनाव बाद ये एकजुटता प्रतिद्वंदिता में बदल चुकी है सत्ता पर नियंत्रण के लिए) और सामने भाजपा का बंटा हुआ नेतृत्व, साथ ही साथ भाजपा का बजरंग बली आधारित एजेंडे की विफलता, कांग्रेस का उसकी काट के लिये बजरंग बली के मंदिर बनाने की घोषणाएं, तथा जातीय समीकरण के साथ सबसे महत्वपूर्ण मुस्लिम वोटों का शत-प्रतिशत ध्रुवीकरण करा पाने में कामयाबी, वहीं जातीय समीकरण भाजपा के पक्ष में न हो पाना।
कुछ समीक्षक इन परिणामों में 2024 के लोकसभा चुनाव में उत्थान तथा बीजेपी का पतन भी देखने लगे हैं लेकिन यह उनकी ज़ल्दबाज़ी है या भाजपा के प्रति उनकी निरंतर लव एंड हेट रिलेशनशिप भी कहा जा सकता है। इसके लिये हम यदि स्थितियों का यदि हम गहराई, निष्पक्षता और ईमानदारी से अध्ययन करना चाहें तो पायेंगे कि कुछ तथ्यों को ज़रूरत से ज़्यादा महत्व विश्लेषणों में दिया जा रहा है जिसे समझना ज़रूरी है जैसे – यह चुनाव त्रिकोणीय था, भाजपा-कांग्रेस तथा जनता दल एक दूसरे से प्रतियोगिता कर रहे थे। जैसा कि अक्सर देखा गया है कि त्रिकोणीय संघर्ष में वोटों का थोड़ा सा भी अंतर परिणामों में बड़ा अन्तर ला सकता है। यह इस से ही समझ सकते हैं कि काफी सीटों पर हार जीत का अंतर पांच हजार से कम रहा है। भाजपा का वोट प्रतिशत पिछले चुनाव की तरह ही 36% पर स्थिर रहा, परंतु जनता दल का वोट पांच प्रतिशत गिरा सीटें 18 घट गयी और कांग्रेस के 2018 के 38% में जुड़ गया। परिणाम स्वरूप कांग्रेस की सीटें 135 हो गयी। भाजपा का वोट प्रतिशत स्थिर रहने को हम यह भी कह सकते हैं कि पार्टी की लोकप्रियता या मतदाता प्रभाव क्षेत्र पर कोई विशेष नकारात्मक असर नहीं हुआ। दूसरा – भारतीय जनता पार्टी ने एक राज्य के चुनाव होते हुए भी राष्ट्रीय मुद्दों को उछाला,जोर देते हुए चुनाव लड़ा वहीं कांग्रेस ने स्थानीय मुद्दों पर चुनाव लड़ा जिसमें राज्य की जनता ने भाजपा की अपेक्षा कांग्रेस के मुद्दों या चुनावी वादों को समर्थन देते हुए मतदान किया। तीसरा जनता दल के मतदाताओं का कांग्रेस की तरफ खिसक जाना जो पांच प्रतिशत रहा। यह भी स्पष्ट देखा गया कि यह एकमुश्त 5% अल्पसंख्यक मतदाताओं का ध्रुवीकरण था जिसका लाभ कांग्रेस को मिला।
परंतु कर्नाटक के परिणामों से कांग्रेस तथा समस्त विपक्षी दलों को यह सोच कर खुश नहीं होना चाहिए कि भाजपा ढलान पर है और 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को हरा पाएंगे, केंद्र में सरकार बना पाएंगे क्योंकि राज्य विधानसभा तथा देश के लोकसभा के लिए मतदान करते हुए मतदाता की सोच अलग होती है। वैसे भाजपा के लिए भी राह इतनी आसान नहीं है जितना वो मानते हैं। यद्यपि भाजपा का प्रतिबद्ध मतदाता कुछ प्रतिशत उससे छिटका ज़रुर है, जबकि विरोध करने वाले मतदाता को एकजुट होकर मिले परिणाम उत्साहित कर रहे हैं इस से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
नोट: लेखक, पत्रकार व स्तंभकार हैं