नई दिल्ली। देश में मीडिया का एक बड़ा वर्ग इन दिनो मोदी विरोध में अंधा होकर दुर्भावना से काम कर रहा है। कोरोना संकट के दौर में केन्द्र सरकार पर सवाल उठाने के साथ ‘केरल मॉडल’ के गुणगान गाने वाला मीडिया असम में कोरोना पर हुए जबरदस्त नियंत्रण पर एक लाइन नहीं लिख रहा है। दिल्ली में जमाती उपद्रव और केजरीवाल की नाकामी छुपाने वाले मीडिया को प.बंगाल में हिंदुओं का दमन नहीं दिखता।
देश-विदेश का मीडिया इन दिनों केरल के रंग में रंगा दिख रहा है। हर जगह चाइनीज वायरस से लड़ने में केरल सरकार की ‘सफलता’ का महिमागान है। क्या टाइम्स आफ इंडिया, क्या आजतक और क्या एनडीटीवी। सीएनएन और बीबीसी भी केरल सरकार के ‘चमत्कारी’ काम को देखकर लहालोट हुए जा रहे हैं। ‘केरल मॉडल’ को प्रचारित किया जा रहा है। यह स्थिति तब है जब केरल में संक्रमित रोगियों के मिलने का क्रम जारी है। लगातार ये आरोप लग रहे हैं कि केरल सरकार ने ट्रेनों में भर-भर कर दूसरे राज्यों के लोगों को तो रवाना करवा दिया, लेकिन अब तक दूसरे राज्यों में रहने वाले अपने लाखों लोगों को लाने की कोई व्यवस्था नहीं की।
2018 में जब केरल में बाढ़ आई थी तब वहां की सरकार पूरी तरह लाचार हो गई थी और लाखों लोगों को मरने को छोड़ दिया था। इसके बाद भी दुनिया भर में केरल सरकार के काम की प्रशंसा हुई थी। वास्तव में यही वामपंथी नेटवर्क की विशेषता है। किसी से छिपा नहीं है कि दुनिया भर के समाचार संस्थानों में वामपंथी और जिहादी गठजोड़ अंदर तक घुसा हुआ है। वह समय-समय पर इसी तरह से अपनी विचारधारा द्वारा शासित कुछ गिनी-चुनी जगहों को लेकर झूठा प्रचार करते रहते हैं। यही वह तंत्र है जो वायरस फैलाने में चीन के अपराधों को छिपाता है और यही केरल में चल रहे सामान्य सरकारी प्रयासों को ‘महामारी पर चमत्कारी विजय’ घोषित कर देता है। ऐसे मिथ्या प्रचार में कई तो पेड न्यूज अर्थात पैसे देकर छपवाई गई रिपोर्ट भी हो सकती हैं। यह मानना कठिन है कि टाइम्स आफ इंडिया ने केवल विचारधारा के आधार पर केरल का स्तुतिगान किया होगा। प्रश्न उठता है कि बराबर जनसंख्या वाले राज्य असम के लिए ऐसी सकारात्मक रिपोर्टिंग क्यों नहीं होती? असम उन राज्यों में है, जहां तब्लीगी जमात के लोग सबसे बड़ी संख्या में पहुंचे थे। फिर भी वहां मरीजों की संख्या केरल से काफी कम है।
इसी तरह की विज्ञापनबाजी करके दिल्ली की केजरीवाल सरकार भी मीडिया की प्रशंसा पा रही है। जैसे ही यह जानकारी सामने आई कि दिल्ली के शवदाह गृहों और कब्रिस्तानों में पहुंचे चाइनीज वायरस के शिकार लोगों की संख्या उससे काफी अधिक है जो दावा दिल्ली सरकार कर रही है, वैसे ही विज्ञापनों की नई खेप आ गई। इसके बाद देश की तथाकथित स्वतंत्र मुख्यधारा मीडिया ने एक बार फिर से मुंह बंद कर लिया। अब दिल्ली के अखबारों और चैनलों में आपको केजरीवाल सरकार के अच्छे कार्यों की जानकारी के अलावा कुछ नहीं मिलेगा। दिल्ली सरकार अभी तक गरीबों को भोजन के अपने दावों को धरातल पर नहीं उतार पाई है। लेकिन इसकी रिपोर्टिंग कहीं देखने को नहीं मिलेगी। विज्ञापनों के लालच में यह आत्मसमर्पण आपराधिक है। ऐसी स्थिति में पत्रकारिता की स्वतंत्रता की बड़ी-बड़ी बातें करने वालों को मुंह बंद कर लेना चाहिए।
बीते दिनों फेक न्यूज फैलाने की दो बड़ी कोशिशें हुईं। एक यह कि ‘मरकज मामले में सबूत के तौर पर जमा दिल्ली पुलिस का आडियो टेप नकली पाया गया है’। और दूसरी यह कि ‘भाजपा गुजरात में मुख्यमंत्री बदलने जा रही है’। इसके लिए पुलिस ने जब जरूरी कानूनी कार्रवाई की तो एडिटर्स गिल्ड ने विरोध दर्ज कराया। जबकि यही एडिटर्स गिल्ड पिछले कुछ समय से कांग्रेस और वामपंथ शासित राज्यों में पत्रकारों के उत्पीड़न और उन पर पुलिस केस दर्ज करने को लेकर चुप्पी साधे बैठी थी। कथित तौर पर देश के संपादकों की यह सर्वोच्च संस्था अगर फेक न्यूज फैलाने वालों का इस तरह से बचाव कर रही है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि इस संस्था में बैठे ज्यादातर लोग वही हैं जो कांग्रेस के कार्यकर्ता के तौर पर झूठ फैलाने का ही धंधा करते रहे हैं।
बंगाल के हुगली जिले और कुछ अन्य स्थानों पर हिंदुओं के मकानों और दुकानों पर हमले हुए। सोशल मीडिया की बदौलत लोगों तक इसकी सूचना पहुंच पाई। बंगाल के मीडिया का डर समझ में आता है, लेकिन दिल्ली का कथित राष्ट्रीय मीडिया भी अगर इस समाचार को 12वें और 14वें पृष्ठ पर छापता है तो मंशा का अनुमान लगाना बहुत कठिन नहीं होता। इसी तरह कांग्रेस शासित राजस्थान में महिलाओं और दलितों पर हो रहे अत्याचार के समाचार भी सुर्खियों से गायब हैं। कारण समझना बहुत कठिन नहीं है।