देश

सोचिए सरकार ! किसान और कामगारों को भी है आर्थिक पैकेज की दरकार

कर्मवीर नागर प्रमुख

सामाजिक चिंतक

वैश्विक महामारी के संकट की इस घड़ी में चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ है। वैश्विक महामारी से बचाव और देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए देश और प्रदेश की सरकारें भी पूरी शिद्दत के साथ काबिले तारीफ कारगर कदम उठाती नजर आ रही है । इस दौरान भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जल्दी-जल्दी दो बार आर्थिक पैकेज की घोषणा करना वर्तमान परिस्थितियों में स्वागत योग्य कदम है। लेकिन कृषि प्रधान देश कहे जाने वाले भारत देश में किसानों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है । देश के सामान्य हालातों में भी बहुत से किसानों की कर्ज के दबाव में आत्महत्या करने की खबरें आमतौर पर पढ़ने को मिलती रहती है। तब स्वयं अंदाज लगाया जा सकता है कि इस संकट के समय में देश के लोगों का भरपेट भोजन के लिए अन्न उत्पन्न करने वाला वही अन्नदाता गरीब किसान किन हालातों से गुजर रहा होगा । किसान नामक यह देश का वही वर्ग है जिसके अंदर इतना स्वाभिमान भी है कि विषम परिस्थितियों और खराब हालात के बावजूद सरकार व स्वयंसेवी संस्था द्वारा बांटी जा रही खाद्य सामग्री के लिए वह कतार बद्ध खड़ा होने के लिए तैयार नहीं है । यह उस अन्नदाता का स्वाभिमान ही है कि वह आत्महत्या करके अपने प्राण त्यागने तक का कड़ा कदम तो उठा सकता है लेकिन किसी के समक्ष भीख के लिए झोली नहीं फैला सकता । यह इस देश के उस किसान और मजदूर की सच्चाई है जिनको चुनावी घोषणा में सब्जबाग दिखाकर हर बार ठगा जाता रहा है । किसान और कामगार के रूप में यही वह चेहरे हैं जब भी इनका जिक्र होता है तो आंखों के सामने जिनकी काल्पनिक तस्वीर में भी चेहरे पर झुर्रियां, शरीर के रूप में हड्डियों का ढांचा, तन पर फटे वस्त्र नजर आते हैं । यह इस देश के बदहाल किसान और मजदूर की काल्पनिक तस्वीर नहीं है बल्कि इस देश के किसान की यही असली सच्चाई है।

बदहाली से उबरने की मुश्किल राह

हालांकि इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि देश की आजादी के बाद में सभी सत्तासीन सरकारों द्वारा कृषि क्षेत्र में काफी हद तक कारगर कदम उठाए गए । जिसके फल स्वरुप भारत अन्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर तो हो पाया लेकिन इसके बावजूद अभी तक इस देश के किसान के चेहरे पर वह रौनक नहीं आई जो इतने लंबे मैराथन प्रयासों के बाद आनी चाहिए थी। यही कारण है कि रोजगार की तलाश में गांव देहात के किसान परिवारों से जुड़े लोगों का रोजगार की तलाश में शहर की तरफ पलायन लगातार जारी है। हां, यहां यह बताना भी दीगर होगा कि उन तथाकथित किसानों के चेहरे पर जरूर लालिमा और चमक दिखाई देती है जो किसान के नाम पर मिलने वाली सरकारी सुविधा, राहत सामग्रियों और पैकेज को सटक जाते हैं । जो आयकर में छूट के लिए गमलों में खेती करने की जादूगरी कर के आयकर में लाभ लेते हैं।

भारतीय रिजर्व बैंक ने इस संकट के दौरान 27 मार्च 2020 को घोषित प्रथम पैकेज में सावधि कर्ज की अदायगी पर रोक लगाई थी । अब 16 मार्च 2020 को एनपीए नियमों में परिवर्तन करके एनबीएफसी को बड़ी राहत प्रदान करना स्वागत योग्य कदम है । हालांकि इसका फायदा मिल पाना तभी संभव हो सकेगा जब बैंक छोटे उद्यमियों को आसानी से लोन दे सकेंगे । क्योंकि आमतौर पर छोटे उद्यमियों को बैंक कर्ज देने में ज्यादा रुचि नहीं दिखाते है । भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा की गई घोषणाओं का लाभ तभी मिल पाना संभव हो सकेगा जब इसका सकारात्मक असर जमीनी स्तर पर दिखाई दे । इस कदम से पूंजी बाजार में नकदी की उपलब्धता होना तो कुछ हद तक आसान हो सकती है लेकिन पहले से ही लड़खड़ा रही भारतीय अर्थव्यवस्था का उबर पाना भी कोई आसान काम नहीं है । अभी तो यह भी देखना होगा कि वैश्विक महामारी के इस संकट के दौर में भयभीत कारोबारी कर्ज के लिए आगे आते हैं या नहीं । क्योंकि बाजार में मांग वृद्धि की स्थिति में ही कारोबारी का व्यवसाय के लिए लोन हेतु उत्साहित होना संभव है । क्योंकि लॉक डाउन की स्थिति में बाजार में मांग बढ़ना कोई आसान काम नहीं है।

कोरोना लॉकडाउन से प्रभावित असंगठित ...

ऐसे में बहुत जरूरी है कि मांग बढ़ाने के लिए सरकार को आम आदमी की जेब भारी करके क्रय शक्ति यानी कि क्रेडिट पावर बढ़ानी होगी और यह तभी संभव हो सकेगा जब इस देश के किसान और कामगार के लिए सरकार किसी राहत भरे पैकेज की घोषणा करें। यह वक्त की जरूरत है कि सरकार को छोटे और मझोले उद्योगों के अतिरिक्त किसान और मजदूर भी पर विशेष फोकस जरूर करना चाहिए । क्योंकि कई छोटे छोटे उद्योगों के पास कर्मचारियों को वेतन देने तक की समस्या खड़ी हो गई है। ऐसे में कामगारों की छंटनी की नौबत देश में बेरोजगारी को बढ़ावा दे सकती है।

इसी तरह सरकार को इस वक्त कृषि प्रधान देश भारत के उस अन्नदाता की तरफ जरूर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए जो इस वर्ष कोरोना संकट, ओले और बारिश जैसी दोहरी मार से बेहाल है। मौसम की मार से किसान की गेहूं की फसल को पहले ही काफी नुकसान हो चुका है और अब लॉक डाउन की वजह से फसल को खलिहान से घर तक लाने में किसान को बहुत भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। इसी तरह देश के गन्ना किसानों के हालात इस वक्त बहुत ही दयनीय हैं । गन्ना मिल मालिकों द्वारा गन्ने का भुगतान न किए जाने के बावजूद भी फसल खराब होने के भय से गर्मी, सर्दी और बरसात की परवाह किए बगैर, घर से लागत लगाकर मेहनत से उगाई गई गन्ने की फसल को 24- 24 घंटे लाइन में खड़े होकर गन्ना मिल मालिक के दरवाजे उड़ेलने के लिए बेबस और लाचार होना पड़ रहा है । यह उस गरीब किसान की वास्तविक सच्चाई है जिसे मिल मालिकों ने लंबे समय से भुगतान नहीं किया है। किसानों के गन्ने की समस्त बकाया धनराशि को भुगतान के लिए सरकार को तत्काल सख्त आदेश पारित करने चाहिए । अन्यथा यही किसान खेत में खड़ी फसल को आग तक लगाने के लिए लाचार और विवश हो जाएगा जैसा कि पहले भी कई बार हो चुका है।

आर्थिक और मानवीय संकट की आहट न बने ...

इस देश का अन्न दाता कहे जाने वाला यह वही गरीब किसान है जिसकी आय दोगुना करने के लिए देश के माननीय प्रधानमंत्री भी काफी चिंतित हैं । योजना आयोग और भारत सरकार इस संबंध में क्या-क्या कारगर कदम उठाने जा रही हैं यह तो अनुकूलित चैंबर्स में बैठ कर प्रारूप तैयार करने वालों की रिपोर्ट ही बता पाएगी । लेकिन फिलहाल देश के किसान और कामगार को इस संकट से उत्पन्न हुए आर्थिक हालातों से उबरने के लिए बड़े राहत पैकेज की सख्त जरूरत है। किसान और कामगार भारतीय बाजार की मांग का वह बड़ा हिस्सा है जिसके ऊपर लघु, कुटीर एवं बड़े बड़े उद्योग भी निर्भर करते हैं । जब तक इन दोनों वर्गों की जेब भारी नहीं होगी तब तक बाजार में मांग नहीं बढ़ेगी और जब तक मांग नहीं बढ़ेगी तब तक उद्योगों के आर्थिक हालात नहीं सुधरेंगे और जब तक उद्योगों के हालात नहीं सुधरेंगे तब तक रिजर्व बैंक द्वारा दिए जाने वाले सभी राहत पैकेज लाभप्रद साबित नहीं होंगे । ऐसे में हम पुरजोर मांग करते हैं कि सरकार किसान और कामगार के लिए इस संकट की घड़ी में जरूरतों के हिसाब से सरकार आर्थिक राहत पैकेज की घोषणा करें। जो कि इस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है अन्यथा इन दोनों के खस्ताहाल होने से देश की अर्थव्यवस्था पटरी से नीचे उतरने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता ।

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