पराक्रम दिवस पर विशेष

बचपन में गीत सुनते थे-ये देखो बंगाल यहाँ का हर चप्पा हरियाला है, यहाँ का बच्चा-बच्चा अपने देश पे मरने वाला है, जन्मभूमि है यही हमारे वीर सुभाष महान की, इस मिट्टी को तिलक करो ये धरती है बलिदान की, वंदे मातरम्। इसी वीर का जन्मदिवस पराक्रम दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। इसी पराक्रम के चलते द्वितीय महायुद्ध के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए उन्होंने जापान के सहयोग से आजाद हिन्द फौज का गठन किया।
इसी पराक्रम के चलते ‘जय हिन्द’ का नारा दिया जो भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया और इसी पराक्रम के चलते आह्वान किया, ‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा,’’ और इस आह्वान ने लाखों युवकों को मातृभूमि पर सर्वोच्च बलिदान देने के लिए प्रेरित किया। इसी पराक्रमी प्रेरणा पुरुष को भारतीयों ने प्रेम और दुलार से ‘नेताजी’ के नाम से सम्बोधित किया। इसी नेता जी ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने सुप्रीम कमाण्डर के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश व कॉमनवेल्थ सेना से बर्मा, इंफाल और कोहिमा में एक साथ जमकर टक्कर ली।
इसी वर्ष 21 अक्तूबर को स्वतन्त्र भारत की अस्थाई सरकार बनाई जिसे ग्यारह देशाें की सरकारों ने मान्यता दी। जापान ने तो अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थाई सरकार को दे दिए गए थे। 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशाें को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया। सबसे भयंकर कोहिमा का युद्ध था जो 4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 के बीच लड़ा गया। इस युद्ध में जापानी सेना को पीछे हटना पड़ा और यहीं से एक महत्वपूर्ण मोड़ की शुरूआत हुई। नेता जी ने रंगून रेडियो स्टेषन के विषेष प्रसारण के माध्यम से 6 जुलाई 1944 को महात्मा गांधी से इस निर्णायक युद्ध में विजय के लिए शुभकामनाएं और आशाीर्वाद मांगा। आप सोचें उस पराक्रमी के विषय में जो कितना संकल्पित और दृढ़निष्चयी रहा होगा जिसे 49वीं बंगाल रेजीमेण्ट में भर्ती की परीक्षा से आंखें खराब होने के चलते अयोग्य घोषित कर दिया गया हो वही व्यक्ति दुनिया की प्रवासियों द्वारा गठित सबसे बड़ी आजाद हिन्द फौज का सुप्रीम कमाण्डर बनता है।
सन् 1920 में आई सी एस की परीक्षा पास करने के पष्चात् अपने बड़े भाई शरतचन्द्र बोस को पत्र लिखकर उनकी राय जाननी चाही कि उनके दिलो दिमाग पर तो महर्षि अरविन्द और स्वामी विवेकानन्द के आदर्ष छाये हुए हैं, ऐसे में वह आई सी एस बनकर अंग्रेजों की गुलामी कैसे कर सकते हैं। भारत सचिव ई.एस मान्टेग्यू को उन्होंने अपना त्यागपत्र दे दिया। पाठकगण विचार करें कि जिस आई सी एस के लिए लोग तरसते हैं उसे पल में ठोकर मारने वाले की सोच कितनी उच्च और पराक्रमी रही होगी। कोलकत्ता के स्वतन्त्रता सेनानी देषबन्धु चितरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर सुभाष उनके साथ काम करना चाहते थे। रविन्द्रनाथ ठाकुर की सलाह पर भारत वापसी पर वे सर्वप्रथम मुम्बई महात्मा गांधी से मिलने गए वहाँ गांधी जी ने कोलकत्ता में दास बाबू के साथ मिलकर कार्य करने की ही सलाह दी। बस फिर क्या था बंगाल जाते ही दास बाबू के साथ असहयोग आन्दोलन में कूद गए।
1922 में दास बाबू ने कांग्रेस के अन्तर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। इस पार्टी ने कलकत्ता महापालिका का चुनाव जीता, दास बाबू महापौर बने और उन्होंने सुभाष बाबू को प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। यह सुभाष का पराक्रम, कर्तव्यनिष्ठा और दृढ़निष्चय ही कहा जायेगा कि उन्होंने महापालिका का पूरा ढांचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला। कलकत्ता में सभी रास्तों के अंग्रेजी नाम बदलकर उन्हें भारतीय करना भी उनका गुलामी सोच को परिवर्तित करने का पराक्रम ही था। एक और सराहनीय काम था स्वतन्त्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करने वालों के परिवारजनों को महापालिका में नौकरी दिलवाया।
शीघ्र ही सुभाष देश के अग्रणी युवा नेता बन गये। साइमन कमीशन का विरोध और काले झण्डे दिखाने का काम बंगाल में उन्हीं के नेतृत्व में किया गया। इसी कमीशन के विरोध में भारत का भावी संविधान बनाने के लिए आठ सदस्यीय कमेटी बनी जिसका हिस्सा सुभाष भी बने। 1928 के कांग्रेस के वार्षिक अधिवेषन में इस कमेटी की रिपोर्ट पूर्ण स्वराज्य को लेकर आई परन्तु गांधी जी उस समय डोमिनियन स्टेटस पर अड़े थे। मोती लाल नेहरू और सुभाष को यह मंजूर न था वे गांधी जी के विरोध में अड़े रहे और अंततः 1930 के लाहौर अधिवेषन में इस संतुति को कांग्रेस ने स्वीकार लिया और 26 जनवरी 1931 को कलकत्ता में राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया गया जिसके पश्चात् लाठीचार्ज में सुभाष तो घायल हुए परन्तु देश को आजाद कराने का पराक्रम घायल नहीं हुआ।
16 जनवरी 1941 को पुलिस को चकमा देकर एक पठान मोहम्मद जिआउद्दीन के वेष में फ्रंटियर मेल से पेषावर पहुंचना, पेशावर से काबुल गूंगा-बहरा बनकर निकलना, आरलैण्डो मैजोन्टा बनकर रूस की राजधानी मास्को पहुंचना, वहां से बर्लिन और हिटलर से मिलकर भारतीयों के बारे में उस द्वारा लिखी टिप्पणी ठीक करवाना, वह भी जब हिटलर की तूती बोलती हो, आजाद हिन्द रेडियो की स्थापना करना, कील बन्दरगाह से जर्मनी पनडुब्बी से मैडागास्कर और फिर वहां से समुद्र में तैरकर दूसरी पनडुब्बी से इंडोनेषिया पहुंचना, रासबिहारी बोस से स्वतन्त्रता परिषद का नेतृत्व संभालना, जापान की संसद में भाषण देना, आजाद हिन्द फौज का गठन करना ये सब घटनाएं उनके अदम्य साहस, शौर्य, पराक्रम, निडरता और मातृभूमि के प्रति उनकी कृतज्ञता और समर्पण की प्रतीक है। ऐसे सच्चे पराक्रमी देशभक्त की जयन्ती पर अमृत महोत्सव में कृतज्ञ राष्ट्र उन्हें सलामी देता है।
(लेखक गुरूग्राम विष्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति व ‘जीओ गीता’ के उपाध्यक्ष है)